भेदभाव का सबसे बड़ा केंद्र कहां तक फैलेगा

रेप का सिलसिला आखिर कहाँ जाकर थमेगा इस खुदगर्ज दुनिया में। बेटी किसी की भी हो, वह बेटी तो भारत माता की है ही ना तो इस पर राजनीतिक क्यों की जाती हैं। हमें अवश्य ही इन मामलों में मिलकर आवाज उठानी चाहिए ताकि यह आग कल हमारे घर तक ना पहुंचे। बहरहाल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पता चला है कि पूरे विश्व में करीब 35 प्रतिशत महिलाएं किसी ना किसी प्रकार की हिंसा का शिकार होती हैं। हैरानी की बात यह है कि जिस सोशल मीडिया को अधिकतम दुनिया उपयोग करती हैं।
उसी सोशल मीडिया पर दुनिया की करीब 60 प्रतिशत महिलाओं के साथ विभिन्न प्रकार की हिंसा होती है। जिस आंकड़े को देखकर यह तो स्पष्ट हो गया है कि असल जिंदगी में कानून के डर की वजह से महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने वाले पुरुषों की संख्या भले ही कम हो लेकिन जैसे ही यह पुरुष सोशल मीडिया पर आते हैं, तो पूरी तरह से स्वछंद हो जाते हैं और खुलेआम महिलाओं के साथ हिंसा करने लगते हैं। भले ही यह हिंसा शारीरिक ना हो परन्तु इस ऑनलाइन हिंसा का शिकार हुई महिलाओं की मानसिक स्थिति भी शारिरिक हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं जैसी ही हो जाती है। सोशल मीडिया पर हिंसा का शिकार होने के कारण बीस प्रतिशत महिलाओं को अपना सोशल मीडिया अकाउंट बंद भी करना पड़ता है। गौरतलब है कि यह सर्वे भारत समेत 22 देशों की 14 हज़ार से ज्यादा महिलाओं के बीच किया गया है और सर्वे में शामिल महिलाओं की उम्र 15 से 25 वर्ष के बीच ही थी। इस सर्वे के मुताबिक 39 प्रतिशत महिलाओं के साथ ऑनलाइन हिंसा की घटनाएं फेसबुक पर होती हैं, जबकि इंस्टाग्राम पर हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की संख्या 23 प्रतिशत है। 14 प्रतिशत महिलाओं के साथ व्हाट्सएप के माध्यम से ऑनलाइन हिंसा की जाती है, जबकि स्नैपचैट पर दस प्रतिशत, ट्विटर पर 9 प्रतिशत और छह प्रतिशत अन्य ऐप के माध्यम से महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसी वर्ष दिल्ली और आस पास के शहरों में किए गए एक सर्वे में पता चला था कि इंटरनेट पर महिलाओं के साथ हिंसा के मामले 36 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं, जबकि ऑनलाइन हिंसा के मामलों में सजा की दर चालीस प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत रह गई है और अगर सौ पुरुष सोशल मीडिया या इंटरनेट पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा करते हैं तो उसमें से सिर्फ 25 को ही सज़ा मिल पाती है हालांकि महिला के साथ रेप के मामलों में सज़ा की दर 27 प्रतिशत है। ऑनलाइन हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की स्थिति असल जिंदगी में हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं से भी खराब हो जाती हैं। जो बहुत ही चिंताजनक स्थिति है। हिंसा अगर किसी वर्चुअल प्लेटफार्म पर हो रही है तो भी वह असल जिंदगी में होने वाली हिंसा जितनी ही खतरनाक है। Via sat Savings.Com नाम की एक वेबसाइट के सर्वे के मुताबिक इसी हिंसा और छेड़छाड़ की वजह से फेसबुक पर 74 प्रतिशत महिलाओं को किसी ना किसी को ब्लाक करना पड़ता है, इंस्टाग्राम पर पुरुषों के मुकाबले दोगुनी महिलाएं किसी ना किसी को ब्लाक करती हैं। उल्लेखनीय है कि हम अपने घर को तो सुरक्षित बना सकते हैं, घर के आस पास ऊंची ऊंची दीवारें खड़ी कर सकते हैं, सीसीटीवी कैमरे लगा सकते हैं लेकिन सोशल मीडिया अकाउंट को सुरक्षित बनाने के ज्यादा विकल्प मौजूद ही नहीं है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का मकसद वैसे तो लोगों को दूसरे लोगों के करीब लाना होता है परन्तु अब यह कुछ ओर ही मोड़ लेता जा रहा हैं।
ऑनलाइन हिंसा और छेड़छाड़ के बढ़ते मामलों के कारण ही अब करीब 59 प्रतिशत महिलाएं अपने अकाउंट को प्राइवेट रखना ही पसंद करती हैं, जबकि इसकी तुलना में अपने अकाउंट को प्राइवेट रखने वाले पुरुषों की संख्या सिर्फ 44 प्रतिशत ही है यानी ज्यादातर पुरुष चाहते हैं कि उनके अकाउंट पर जो भी पोस्ट किया जा रहा है उसे ज्यादा से ज्यादा लोग देखें, जबकि महिलाओं ऐसा नहीं चाहती। महिलाओं के प्रति असुरक्षा और भेदभाव की जो स्थिति हमने अपने असली समाज में पैदा की है, वही स्थिति अब सोशल मीडिया की आभासी दुनिया पर भी हावी होने लगी है। कुल मिलाकर महिलाओं के साथ छेड़खानी जैसी घटनाएं अब सिर्फ घर के बाहर ही नहीं होती बल्कि सोशल मीडिया पर भी महिलाओं को ऐही घटनाओं का सामना करना पड़ता हैं। आज से बीस वर्ष पहले जब अलग अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की शुरुआत हुई थी तो कहा गया था कि यह वर्चुअल दुनिया सबको बराबरी का मौका देगी, यहां महिलाओं और पुरुषों के बीच कोई भेदभाव नहीं होगा परन्तु आज की हकीकत तो यह है कि सोशल मीडिया ही समाज के अलग अलग वर्गों के साथ भेदभाव का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है। एक अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट की रिपोर्ट के मुताबिक 18 से 30 वर्ष की महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा ऑनलाइन हिंसा की आशंका होती है। मोबाइल फोन के जरिए ऑनलाइन हिंसा की 19 प्रतिशत घटनाओं को अंजाम दिया जाता है लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि ऑनलाइन हिंसा के सिर्फ 33 प्रतिशत मामलों में ही सर्विस प्रोवाइडर की तरफ से कोई कार्रवाई की जाती है और जिन मामलों की जानकारी अथॉरिटी को दी जाती है उनमें से सिर्फ 41 प्रतिशत मामलों की ही जांच हो पाती है।
तथा सोशल मीडिया पर होने वाला यह भेदभाव यहीं तक सीमित नहीं है। टेक्नोलॉजी कंपनियां जिस एल्गोरिदम के सहारे पूरी दुनिया जीतने का सपना देखती है वो एल्गोरिदम ही सोशल मीडिया पर अलग अलग वर्गों के साथ भेदभाव का हथियार बन चुका है। रिपोर्ट का दावा है कि चौकीदार और ड्राइवर जैसे विज्ञापन सबसे ज्यादा उन लोगों तक पहुंचाए गए जो अल्पसंख्यक हैं जबकि नर्स और सेक्रेटरी जैसे ज्यादातर विज्ञापन महिलाओं को दिखाए गए व जब किसी घर की बिक्री से संबंधित विज्ञापन पोस्ट किया गया तो उसे उन लोगों तक पहुंचाया गया जिनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहतर है यानी समाज में भेदभाव की दीवारें गिराने का दावा करने वाला सोशल मीडिया खुद समाज को रंग, जेंडर, जाति और धर्म के आधार पर बांट रहा है। और महिलाओं के साथ जो हिंसा होती है उसके पीछे बड़ी संख्या में बनने वाले फेक अकाउंट भी हैं। कई बार कुछ पुरुष महिलाओं के नाम से फेक अकाउंट बना लेते हैं और धोखा देकर महिलाओं के साथ बदसलूकी करते हैं एंव वर्ष 2019 के पहले तीन महीनों में फेसबुक ने 220 करोड़ फेक अकाउंट हटाए थे। चिंता की बात तो यह भी है कि यह फेक अकाउंट सिर्फ तीन महीनों में ही बनाए गए थे यानी कुल मिलाकर इस समय फेसबुक पर जितने असली अकाउंट हैं लगभग उतने ही फेक अकाउंट भी हैं।
और इन्ही फेक अकाउंट से ऑनलाइन हिंसा की जाती है, फेक न्यूज़ फैलाई जाती है और धोखाधड़ी की कोशिशें भी होती हैं। वास्तविक में इंटरनेट की इस दुनिया पर कौन असली है और कौन नकली इसकी पहचान करना बहुत मुश्किल हो चुका है। सोशल मीडिया पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आंकड़े देखने और विशेषज्ञों की बातें सुनने के बाद तो यह स्पष्ट हो गया है कि महिलाएं ना तो असली समाज में सुरक्षित हैं और ना ही इस सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में। महिलाएं तो इन दोनों ही जगहों पर भेदभाव का शिकार होती हैं। जो बेशक़ ही आपत्तिजनक हैं। दुनिया ने जो इंटरनेट पर इंस्टेंट बराबरी का जो सपना दिखाया था वह अब टूटने लगा है। जिस तरह असल जीवन में आज भी लड़कियों से तमाम सवाल पूछे जाते हैं, उसी तरह के सवाल सोशल मीडिया पर भी पूछे जाते हैं। पहले महिलाओं को गली के लड़के छेड़ते थे लेकिन अब सोशल मीडिया पर इव टीजिंग की जाती है। सोशल मीडिया पर महिलाओं से पूछा जाता है। हमारा असली समाज ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया भी महिलाओं को एक प्रोडक्ट की तरह देखने लगा है। इंटरनेट कंपनियों के एल्गोरिदम ना सिर्फ महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं बल्कि महिलाओं को एक उत्पाद में भी बदलना चाहते हैं क्योंकि जो महिला सोशल मीडिया पर ज्ञान विज्ञान की बातें करती है उसके फॉलोअर्स की संख्या उतनी नहीं होती जितनी एक मॉडल के फॉलोअर्स की होती हैं। अश्लील कन्टेन्ट इसी एल्गोरिदम के सहारे तेज़ी से प्रमोट होते हैं जबकि ज्ञान भरे कन्टेन्ट को ज्यादा लोगों तक पहुंचने में अधिक समय लगता है।
भविष्य के लिए सोचा था कि डिजिटल दुनिया में तो शायद महिलाओं को सम्मान मिलेगा लेकिन अफसोस यह है कि डिजिटल दुनिया में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा और उनका अपमान अब सारी सीमाएं लांघने लगा है। जिसके खिलाफ पीड़िता महिला को अवश्य ही आवाज़ उठानी चाहिए।
-निधि जैन

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