धर्मनिरपेक्ष देश भारत क्यों?
बचपन में दी गई शिक्षा, संस्कार, सीख अवश्य ही इस गुम नाम दुनिया में आगे चलकर बच्चों के व्यक्तित्व को आकार देकर उनके भविष्य की बुनियाद बनती हैं। एकमात्र अच्छी शिक्षा ही बच्चे का भविष्य उज्जवल बनाने में कारगर साबित होती है परन्तु प्रशन यह उठता है कि इस विश्व में कितने मां-बाप ऐसे हैं जो अपने बच्चों को उनके खुशहाल बचपन से अलग करके उन्हें पुजारी, पादरी, मौलवी बनाना चाहते हैं?
गौरतलब है कि अगर भारत में सभी को अपना धर्म और पूजा पद्धति चुनने की आजादी है तो फिर भी भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश क्यों कहां जाता हैं? सरकार के खर्चे पर बच्चों को धार्मिक शिक्षा क्यों दी चाहती हैं? हालही में असम सरकार के शिक्षा मंत्री हेमन्ता बिस्वा सरमा ने घोषणा की है कि अब उनके राज्य में चल रहे सभी मदरसों को और संस्कृत स्कूलों को सामान्य स्कूलों में बदल दिया जाएगा व इसके अलावा मदरसों पढ़ाने वाले शिक्षकों का भी नए स्कूलों में ट्रांसफर किया जाएगा। असम सरकार ने यह साफ कर दिया है कि सरकार के पैसों से बच्चों को कुरान नहीं पढ़ाई जा सकती और अगर सरकारी खर्चे पर कुरान को पढ़ाया जा सकता है तो फिर गीता या बाइबल क्यों नहीं पढ़ाई जा सकती? जिस पर विपक्षी दल ने विरोध करना भी शुरू कर दिया है जिस पर देश को दो हिस्सों में बांटा गया हैं। पहले समुदाय के लोग इस फैसले को अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय बता रहे हैं। बहरहाल भारत में असम समेत कुल 18 राज्य ऐसे हैं जहां मदरसों को केंद्र सरकार से फंडिंग मिलती है। जिसमें मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी शामिल हैं और अब असम देश का प्रथम राज्य बन चुका है जिसने विशाल कदम उठाकर इस पर रोक लगा दी है, लेकिन धर्म और शिक्षा को अलग अलग करने के इस फैसले पर राजनीति भी शुरू हो गई है। जो बेशक़ ही आपत्तिजनक हैं।
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा में इस समय बीजेपी की सरकार है जबकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है इसका मतलब सरकारी खर्चे पर धार्मिक शिक्षा देने का काम, लगभग सभी सरकारें करती हैं और जिसके पीछे का मकसद क्या है, यह तो शायद ही किसी को नहीं ही पता होगा। भारत का 70 वर्षों का इतिहास धार्मिक तुष्टिकरण की ऐसी ही मिसालों से भरा हुआ है और अल्पसंख्यकों को अपने मुताबिक शिक्षा हासिल करने का अधिकार भारत का संविधान भी देता है। एंव संविधान के आर्टिकल तीस के अनुसार, भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वो अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं जिसके लिए वह बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं व भारत में मदरसे संविधान के इसी आर्टिकल के आधार पर चलते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा ही दी जाती है, इनमें गणित और विज्ञान जैसे आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं, लेकिन मूल रूप से इनका मकसद बच्चों को धर्म के रास्ते पर ही ले जाना होता हैं ताकि बच्चों में उनके धर्मों का ज्ञान अधिक हो सकें।
उल्लेखनीय है कि वह छोटे-छोटे बच्चे जिनको समझ तक नहीं होती सही और गलत की, जो सक्षम नहीं होते अपना भला बुरा सोचने में तो उन्हें यह कैसे पता चलेगा कि जो उन्हें पढ़ाया जा रहा है वो उन्हें तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा या फिर कट्टर बना देगा। तथा शिक्षा मंत्रालय के वर्ष 2018 के आंकड़ों के अनुसार इस समय भारत के 18 राज्यों में चलने वाले मदरसों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए केंद्र सरकार से सहायता भी मिलती है और भारत में चार राज्य ऐसे हैं जहां दस हजार से अधिक मदरसें हैं, जिनमें बीस लाख से ज्यादा छात्र पढ़ते हैं, इनमें से सबसे ज्यादा मदरसे उत्तर प्रदेश में ही हैं, जहां आठ हजार से ज्यादा मदरसों में 18 लाख से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं, परन्तु इन मदरसों में छात्रों को मूल रूप से इस्लामिक शिक्षा ही दी जाती है, जिसमें कुरान में से कही गई बातों को पढ़ाया जाता है व इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े दूसरे विषयों की ही पढ़ाई होती है। अर्थात मदरसों की शुरुआत सातवीं शताब्दी में तब हुई थी, जब धार्मिक शिक्षा हासिल करने के इच्छुक लोगों को मस्जिदों में इस्लाम धर्म के विषय में पढ़ाया जाने लगा था, और तब से ही इसके बाद के चार सौं वर्षों के दौरान मदरसे शिक्षा के अलग केंद्रों के रूप में विकसित होने लगे। वैसे शुरुआती दौर में तो मदरसों का खर्च वो लोग ही उठाते थे जो आर्थिक रूप से समृद्ध होते थे परन्तु इसके बाद से तो 11वीं शताब्दी तक मदरसें धार्मिक शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र के रूप में विकसित होने लगे और जैसे जैसे मदरसों के पास पैसा आता गया तो वैसे वैसे ही इनको स्थायी इमारतें, शिक्षक और देखरेख करने वाले कर्मचारी भी मिलते गए। भारत में मदरसों की स्थापना 10वीं शताब्दी से होने लगी थी यानी जैसे ही मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा किया वैसे ही भारत में मदरसों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार किया जाने लगा एंव एक दौर में तो जब पश्चिमी देशों के सिर्फ पांच प्रतिशत लोग ही पढ़ और लिख पाते थे तो उस दौर में मदरसों में लाखों मुसलमान शिक्षा हासिल करने लगे थे एंव मदरसों की स्थापना रूस, मंगोलिया, चीन, भारत और मलेशिया जैसे देशों में होने लगी लेकिन 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ने लगा और दुनियाभर में ईसाई मिशनरी स्कूलों की स्थापना होने लगी और इन स्कूलों की स्थापना के पीछे का मकसद भी धर्म का प्रचार करना ही रह गया था लेकिन फर्क सिर्फ इतना था कि अंग्रेजों ने ऐसा करने के लिए विज्ञान, गणित और टेक्नोलॉजी की शिक्षा को आधार बनाया, जिससे लोगों को रोजगार मिलने लगा और ज्यादा से ज्यादा लोग ईसाइयों के स्कूलों में आने लगे, जबकि आधुनिक शिक्षा के अभाव में मदरसों से पढ़कर निकलने वाले छात्रों के लिए रोजगार की कमी होने लगी और धीरे-धीरे यह लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ने लगे।
जिससे इन लोगों के मन में रोजगार की चिंता उत्पन्न होने लगी। तथा असम में जिन मदरसों को स्कूलों में बदलने का फैसला किया गया है उनकी संख्या 1500 से ज्यादा है और इनमें से 614 सरकारी और 900 प्राइवेट मदरसे हैं। सरकार इन पर हर साल तीन से चार करोड़ रुपये खर्च करती है, लेकिन अब इन मदरसों को सरकार से मिलने वाली मदद बंद हो जाएगी, जबकि संस्कृत स्कूलों पर हर साल करीब एक करोड़ रुपये ही खर्च होते हैं परन्तु भेदभाव किसी एक राज्य तक ही सीमित नहीं है। व जो लोग असम सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि सरकार मुसलमानों से उनकी धार्मिक आजादी छीन रही है, लेकिन धार्मिक शिक्षा के नाम पर मदरसों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वो यहां पढ़ने वाले छात्रों के कितना काम आता है उस पर भी तो सवाल खड़े होते ही हैं। संस्था शोध गंगा के आंकड़ों के मुताबिक मदरसों में पढ़ने वाले सिर्फ दो प्रतिशत छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, जबकि 42 प्रतिशत छात्रों का उद्देश्य भविष्य में धर्म का प्रचार करना ही होता है व 16 प्रतिशत छात्र शिक्षक के रूप में धर्म की शिक्षा देना चाहते हैं यानी आठ प्रतिशत छात्र इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, जबकि तीस प्रतिशत का मकसद मदरसों से शिक्षा हासिल करने के बाद सामाजिक कार्य करना होता है, जबकि दों प्रतिशत छात्र भविष्य में धर्म गुरू बनना चाहते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि मदरसों से पढ़ने के बाद विज्ञान का या टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सफल होने की इच्छा नाम मात्र के छात्रों की होती है। हैरानी वाली बात तो यह है कि यह लोग छात्रों के भविष्य के साथ कैसे खेल सकतें है व इसके लिए छात्र नहीं, बल्कि वह व्यवस्था दोषी है जो धर्म की आड़ में छात्रों को आधुनिक शिक्षा से वंचित कर रही हैं। नेशनल स्टेसटिकल ऑफिस के आंकड़ों के मुताबिक भारत के सिर्फ 48 प्रतिशत मुस्लिम छात्र ही 12वीं कक्षा तक की पढ़ाई कर पाते हैं, जबकि 12वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई सिर्फ 14 प्रतिशत मुस्लिम छात्रों को ही नसीब हो पाती है, यानी 70 वर्षों तक जिन सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टीकरण किया, जिन मुसलमानों के वोटों को सरकारें बनाने के लिए बहुत जरूरी समझा गया उन्हीं मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के मामले में कतार में सबसे पीछे धकेल दिया गया एंव इसी तुष्टीकरण की आड़ में वर्षों तक अल्पसंख्यक महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति नहीं दिलाई गई, शरिया कानूनों को बढ़ावा दिया गया और मदरसों में शिक्षा और धर्म का गठजोड़ बनाकर अल्पसंख्यकों से आधुनिक शिक्षा के अवसर भी छीन लिए गए। जो अवश्य ही भयावह है।
कोई व्यक्ति क्या पढ़ना चाहता है, क्या सीखना चाहता है यह सिर्फ उस व्यक्ति पर ही निर्भर होता है, लेकिन जिस देश में अलग-अलग धर्मों के लोगों के अलग-अलग कानून होंगे व अलग-अलग शिक्षा व्यवस्थाएं होंगी वो देश यकीनन ही कभी एकता और अखंडता के साथ आगे नहीं बढ़ पाएगा। छोटी उम्र के बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने में कोई बुराई नहीं है परन्तु उन्हें सिर्फ धर्म से ही रुबरू कराना यह तो गलत है क्योंकि बच्चों के मन में जो विचार हम बचपन में ड़ालते है वह एक दिन वृक्ष जरूर बनते हैं।
और अब इस वृक्ष से देश और समाज को सिर्फ कट्टरता के कांटे हासिल होंगे या फिर देश ज्ञान-विज्ञान की छाया के साथ आगे भो बढ़ेगा, यह तो सिर्फ आने वाली पीढ़ी पर ही निर्भर करता हैं कयोंकि कोई बच्चा मुस्लिम परिवार में जन्म लेता है, हिंदू परिवार में, ईसाई परिवार में या फिर सिख परिवार में यह तो उस बच्चे पर निर्भर नहीं है लेकिन जब बात पढ़ाई-लिखाई की आती है तो बच्चों को उनकी पसंद के हिसाब से चुनाव करने का विकल्प जरूर दिया जाना चाहिए एंव धर्म का असली अर्थ पूजा पद्धति या कट्टर विचारों और कानूनों को बढ़ाना देना बिल्कुल भी नहीं होता है। धर्म तो एक जीवन शैली है, कर्तव्य बोध है व धार्मिक हो जाने का अर्थ कट्टर हो जाना या हिंदू और मुसलमान हो जाना कतई नहीं है, धार्मिक होने का अर्थ सिर्फ इतना है कि आप सही रास्ते पर चल सकें और अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सके लेकिन बच्चों को धर्म और पंथ का अंतर समझने का अवसर ही नहीं दिया जाता बल्कि जो बच्चा जिस धर्म को मानने वाले परिवार में पैदा होता उसे उसी को स्वीकार करना पड़ता है और सही स्वीकृति धीरे-धीरे सही और गलत की पहचान करने की क्षमता को समाप्त कर देती है। धर्म की असली शिक्षा वो तो कतई नहीं होती जो मनुष्य को सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति को समाप्त कर दे, बल्कि धर्म की असली शिक्षा तो वो है जो आपको सवाल उठाने का सामर्थ्य दे ताकि आप गलत को गलत कह सके और अपना मार्ग खुद चुन सकें।वर्ष 2015 में 1200 बच्चों पर किये गए शोध के मुताबिक, 24 प्रतिशत ईसाई, 43 प्रतिशत मुस्लिम और 27 प्रतिशत धर्म को न मानने वाले बच्चे थे, इस शोध में पाया गया कि जिन बच्चों के परिवार वाले बहुत धार्मिक थे, वो बच्चे अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते थे। ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों का आंकलन उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर कर रहे थे। धार्मिक परिवारों से आने वाले बच्चे शरारत करने वाले दूसरे बच्चों को सख्त सज़ा देने के पक्ष में थे, जबकि जिन बच्चों के परिवार वाले किसी धर्म में नहीं मानते थे वो ज्यादा मिलनसार, अपनी चीज़ों को बांटने वाले और दूसरे छात्रों को सज़ा न देने के पक्ष में थे। यह सर्वे सिर्फ 1200 बच्चों पर किया गया था इसलिए कोई चाहे तो इसे आसानी से खारिज भी कर सकता है लेकिन इस समय दुनिया की आबादी करीब 750 करोड़ है और इनमें से 84 प्रतिशत यानी 630 करोड़ लोग खुद को धार्मिक कहते हैं फिर भी दुनिया में इस समय लगभग हर कोने में कोई न कोई हिंसा हो ही रही है, कोई न कोई युद्ध और कोई न कोई लड़ाई झगड़ा चल ही रहा है और ज्यादातर जगहों पर यह सब धर्म के नाम पर ही हो रहा है, इसलिए यकीनन यह फैसला अभिभावकों पर ही निर्भर करता है कि आपको अपने बच्चों को धार्मिक बनाने के नाम पर उन्हें कट्टर बनाना है या फिर उन्हें धर्म के असली मायने समझाते हुए एक बेहतर इंसान बनाना है। भारत में बच्चों को छोटी उम्र से ही धार्मिक रूप से कट्टर बनाए जाने की कहानी आज की नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी। 19वीं शताब्दी के अंत में भारत उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था, व अंग्रेज भारत आ चुके थे और वह भारत की पहचान के साथ साथ भारत की शिक्षा व्यवस्था को भी बदलने लगे थे।
तब भारत के मुसलमानों को लगा कि अंग्रेज उनकी भी धार्मिक पहचान को मिटा देंगे और इसी का मुकाबला करने के लिए भारत में मदरसों की स्थापना तेजी से होने लगी लेकिन धीरे धीरे मदरसे मुसलमानों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने का काम करने लगे। मस्जिदों से मदरसों की करीबी बढ़ने लगी और धीरे धीरे शिक्षा के नाम पर इस्लाम को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा और यह सिलसिला वर्ष 2001 तक चलता रहा, लेकिन जब 11 सितंबर 2001 में जब अमेरिका में बड़ा आतंकवादी हमला हुआ, तब पूरी दुनिया में मदरसों के प्रति सोच बदलने लगी। भारत में इसका असर पड़ा और मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा में केंद्र सरकार का दखल बढ़ गया, परन्तु इसे पूरी तरह से रोकने या इस व्यवस्था को समाप्त करने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। इस्लाम की दुनिया में मदरसे शिक्षा के केंद्र के रूप जरूर जाने जाते हैं लेकिन सदियों से इनका उपयोग राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करने के लिए किया जाता रहा है। जिस पर शायद ही किसी को एतराज होगा। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मदरसे पाकिस्तान में हैं। इनकी संख्या करीब 60 हजार है, इनमें से 20 हजार मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त है जबकि बाकी के मदरसे बिना इजाजत के ही चल रहे हैं। पाकिस्तान के इन मदरसों को पूरी दुनिया में आतंकवाद के लॉन्च पैड के तौर पर भी देखा जाता है। दुनिया में हुए कई बड़े आतंकवादी हमलों के तार इन मदरसों से ही जुड़ चुके हैं। पाकिस्तान के मदरसों को लेकर यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज द्वारा एक स्टडी की गई थी, जिसमें इन मदरसों में पढ़ने वाले 60 प्रतिशत बच्चों ने कहा था कि पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे पर भारत से युद्ध लड़ना चाहिए और कश्मीर को भारत से छीन लेना चाहिए, जबकि पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले 53 प्रतिशत बच्चे जेहाद के समर्थक हैं।
पाकिस्तान के मदरसों में बच्चों के मन यह जहर सिर्फ धार्मिक शिक्षा के आधार पर ही नहीं भरा जाता, बल्कि बच्चों से हिंसा भी की जाती है व उन्हें बुरी तरह से मारा पीटा भी जाता है। देश में जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा चेहरा मानते हैं वही अब मदरसों को बंद करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं। इनमें कई बड़े लोग शामिल हैं। गौरतलब है कि मदरसों पर पाबंदी से तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेंगी।
-निधि जैन
गौरतलब है कि अगर भारत में सभी को अपना धर्म और पूजा पद्धति चुनने की आजादी है तो फिर भी भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश क्यों कहां जाता हैं? सरकार के खर्चे पर बच्चों को धार्मिक शिक्षा क्यों दी चाहती हैं? हालही में असम सरकार के शिक्षा मंत्री हेमन्ता बिस्वा सरमा ने घोषणा की है कि अब उनके राज्य में चल रहे सभी मदरसों को और संस्कृत स्कूलों को सामान्य स्कूलों में बदल दिया जाएगा व इसके अलावा मदरसों पढ़ाने वाले शिक्षकों का भी नए स्कूलों में ट्रांसफर किया जाएगा। असम सरकार ने यह साफ कर दिया है कि सरकार के पैसों से बच्चों को कुरान नहीं पढ़ाई जा सकती और अगर सरकारी खर्चे पर कुरान को पढ़ाया जा सकता है तो फिर गीता या बाइबल क्यों नहीं पढ़ाई जा सकती? जिस पर विपक्षी दल ने विरोध करना भी शुरू कर दिया है जिस पर देश को दो हिस्सों में बांटा गया हैं। पहले समुदाय के लोग इस फैसले को अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय बता रहे हैं। बहरहाल भारत में असम समेत कुल 18 राज्य ऐसे हैं जहां मदरसों को केंद्र सरकार से फंडिंग मिलती है। जिसमें मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी शामिल हैं और अब असम देश का प्रथम राज्य बन चुका है जिसने विशाल कदम उठाकर इस पर रोक लगा दी है, लेकिन धर्म और शिक्षा को अलग अलग करने के इस फैसले पर राजनीति भी शुरू हो गई है। जो बेशक़ ही आपत्तिजनक हैं।
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा में इस समय बीजेपी की सरकार है जबकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है इसका मतलब सरकारी खर्चे पर धार्मिक शिक्षा देने का काम, लगभग सभी सरकारें करती हैं और जिसके पीछे का मकसद क्या है, यह तो शायद ही किसी को नहीं ही पता होगा। भारत का 70 वर्षों का इतिहास धार्मिक तुष्टिकरण की ऐसी ही मिसालों से भरा हुआ है और अल्पसंख्यकों को अपने मुताबिक शिक्षा हासिल करने का अधिकार भारत का संविधान भी देता है। एंव संविधान के आर्टिकल तीस के अनुसार, भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वो अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं जिसके लिए वह बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं व भारत में मदरसे संविधान के इसी आर्टिकल के आधार पर चलते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा ही दी जाती है, इनमें गणित और विज्ञान जैसे आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं, लेकिन मूल रूप से इनका मकसद बच्चों को धर्म के रास्ते पर ही ले जाना होता हैं ताकि बच्चों में उनके धर्मों का ज्ञान अधिक हो सकें।
उल्लेखनीय है कि वह छोटे-छोटे बच्चे जिनको समझ तक नहीं होती सही और गलत की, जो सक्षम नहीं होते अपना भला बुरा सोचने में तो उन्हें यह कैसे पता चलेगा कि जो उन्हें पढ़ाया जा रहा है वो उन्हें तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा या फिर कट्टर बना देगा। तथा शिक्षा मंत्रालय के वर्ष 2018 के आंकड़ों के अनुसार इस समय भारत के 18 राज्यों में चलने वाले मदरसों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए केंद्र सरकार से सहायता भी मिलती है और भारत में चार राज्य ऐसे हैं जहां दस हजार से अधिक मदरसें हैं, जिनमें बीस लाख से ज्यादा छात्र पढ़ते हैं, इनमें से सबसे ज्यादा मदरसे उत्तर प्रदेश में ही हैं, जहां आठ हजार से ज्यादा मदरसों में 18 लाख से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं, परन्तु इन मदरसों में छात्रों को मूल रूप से इस्लामिक शिक्षा ही दी जाती है, जिसमें कुरान में से कही गई बातों को पढ़ाया जाता है व इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े दूसरे विषयों की ही पढ़ाई होती है। अर्थात मदरसों की शुरुआत सातवीं शताब्दी में तब हुई थी, जब धार्मिक शिक्षा हासिल करने के इच्छुक लोगों को मस्जिदों में इस्लाम धर्म के विषय में पढ़ाया जाने लगा था, और तब से ही इसके बाद के चार सौं वर्षों के दौरान मदरसे शिक्षा के अलग केंद्रों के रूप में विकसित होने लगे। वैसे शुरुआती दौर में तो मदरसों का खर्च वो लोग ही उठाते थे जो आर्थिक रूप से समृद्ध होते थे परन्तु इसके बाद से तो 11वीं शताब्दी तक मदरसें धार्मिक शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र के रूप में विकसित होने लगे और जैसे जैसे मदरसों के पास पैसा आता गया तो वैसे वैसे ही इनको स्थायी इमारतें, शिक्षक और देखरेख करने वाले कर्मचारी भी मिलते गए। भारत में मदरसों की स्थापना 10वीं शताब्दी से होने लगी थी यानी जैसे ही मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा किया वैसे ही भारत में मदरसों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार किया जाने लगा एंव एक दौर में तो जब पश्चिमी देशों के सिर्फ पांच प्रतिशत लोग ही पढ़ और लिख पाते थे तो उस दौर में मदरसों में लाखों मुसलमान शिक्षा हासिल करने लगे थे एंव मदरसों की स्थापना रूस, मंगोलिया, चीन, भारत और मलेशिया जैसे देशों में होने लगी लेकिन 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ने लगा और दुनियाभर में ईसाई मिशनरी स्कूलों की स्थापना होने लगी और इन स्कूलों की स्थापना के पीछे का मकसद भी धर्म का प्रचार करना ही रह गया था लेकिन फर्क सिर्फ इतना था कि अंग्रेजों ने ऐसा करने के लिए विज्ञान, गणित और टेक्नोलॉजी की शिक्षा को आधार बनाया, जिससे लोगों को रोजगार मिलने लगा और ज्यादा से ज्यादा लोग ईसाइयों के स्कूलों में आने लगे, जबकि आधुनिक शिक्षा के अभाव में मदरसों से पढ़कर निकलने वाले छात्रों के लिए रोजगार की कमी होने लगी और धीरे-धीरे यह लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ने लगे।
जिससे इन लोगों के मन में रोजगार की चिंता उत्पन्न होने लगी। तथा असम में जिन मदरसों को स्कूलों में बदलने का फैसला किया गया है उनकी संख्या 1500 से ज्यादा है और इनमें से 614 सरकारी और 900 प्राइवेट मदरसे हैं। सरकार इन पर हर साल तीन से चार करोड़ रुपये खर्च करती है, लेकिन अब इन मदरसों को सरकार से मिलने वाली मदद बंद हो जाएगी, जबकि संस्कृत स्कूलों पर हर साल करीब एक करोड़ रुपये ही खर्च होते हैं परन्तु भेदभाव किसी एक राज्य तक ही सीमित नहीं है। व जो लोग असम सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि सरकार मुसलमानों से उनकी धार्मिक आजादी छीन रही है, लेकिन धार्मिक शिक्षा के नाम पर मदरसों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वो यहां पढ़ने वाले छात्रों के कितना काम आता है उस पर भी तो सवाल खड़े होते ही हैं। संस्था शोध गंगा के आंकड़ों के मुताबिक मदरसों में पढ़ने वाले सिर्फ दो प्रतिशत छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, जबकि 42 प्रतिशत छात्रों का उद्देश्य भविष्य में धर्म का प्रचार करना ही होता है व 16 प्रतिशत छात्र शिक्षक के रूप में धर्म की शिक्षा देना चाहते हैं यानी आठ प्रतिशत छात्र इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, जबकि तीस प्रतिशत का मकसद मदरसों से शिक्षा हासिल करने के बाद सामाजिक कार्य करना होता है, जबकि दों प्रतिशत छात्र भविष्य में धर्म गुरू बनना चाहते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि मदरसों से पढ़ने के बाद विज्ञान का या टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सफल होने की इच्छा नाम मात्र के छात्रों की होती है। हैरानी वाली बात तो यह है कि यह लोग छात्रों के भविष्य के साथ कैसे खेल सकतें है व इसके लिए छात्र नहीं, बल्कि वह व्यवस्था दोषी है जो धर्म की आड़ में छात्रों को आधुनिक शिक्षा से वंचित कर रही हैं। नेशनल स्टेसटिकल ऑफिस के आंकड़ों के मुताबिक भारत के सिर्फ 48 प्रतिशत मुस्लिम छात्र ही 12वीं कक्षा तक की पढ़ाई कर पाते हैं, जबकि 12वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई सिर्फ 14 प्रतिशत मुस्लिम छात्रों को ही नसीब हो पाती है, यानी 70 वर्षों तक जिन सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टीकरण किया, जिन मुसलमानों के वोटों को सरकारें बनाने के लिए बहुत जरूरी समझा गया उन्हीं मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के मामले में कतार में सबसे पीछे धकेल दिया गया एंव इसी तुष्टीकरण की आड़ में वर्षों तक अल्पसंख्यक महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति नहीं दिलाई गई, शरिया कानूनों को बढ़ावा दिया गया और मदरसों में शिक्षा और धर्म का गठजोड़ बनाकर अल्पसंख्यकों से आधुनिक शिक्षा के अवसर भी छीन लिए गए। जो अवश्य ही भयावह है।
कोई व्यक्ति क्या पढ़ना चाहता है, क्या सीखना चाहता है यह सिर्फ उस व्यक्ति पर ही निर्भर होता है, लेकिन जिस देश में अलग-अलग धर्मों के लोगों के अलग-अलग कानून होंगे व अलग-अलग शिक्षा व्यवस्थाएं होंगी वो देश यकीनन ही कभी एकता और अखंडता के साथ आगे नहीं बढ़ पाएगा। छोटी उम्र के बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने में कोई बुराई नहीं है परन्तु उन्हें सिर्फ धर्म से ही रुबरू कराना यह तो गलत है क्योंकि बच्चों के मन में जो विचार हम बचपन में ड़ालते है वह एक दिन वृक्ष जरूर बनते हैं।
और अब इस वृक्ष से देश और समाज को सिर्फ कट्टरता के कांटे हासिल होंगे या फिर देश ज्ञान-विज्ञान की छाया के साथ आगे भो बढ़ेगा, यह तो सिर्फ आने वाली पीढ़ी पर ही निर्भर करता हैं कयोंकि कोई बच्चा मुस्लिम परिवार में जन्म लेता है, हिंदू परिवार में, ईसाई परिवार में या फिर सिख परिवार में यह तो उस बच्चे पर निर्भर नहीं है लेकिन जब बात पढ़ाई-लिखाई की आती है तो बच्चों को उनकी पसंद के हिसाब से चुनाव करने का विकल्प जरूर दिया जाना चाहिए एंव धर्म का असली अर्थ पूजा पद्धति या कट्टर विचारों और कानूनों को बढ़ाना देना बिल्कुल भी नहीं होता है। धर्म तो एक जीवन शैली है, कर्तव्य बोध है व धार्मिक हो जाने का अर्थ कट्टर हो जाना या हिंदू और मुसलमान हो जाना कतई नहीं है, धार्मिक होने का अर्थ सिर्फ इतना है कि आप सही रास्ते पर चल सकें और अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सके लेकिन बच्चों को धर्म और पंथ का अंतर समझने का अवसर ही नहीं दिया जाता बल्कि जो बच्चा जिस धर्म को मानने वाले परिवार में पैदा होता उसे उसी को स्वीकार करना पड़ता है और सही स्वीकृति धीरे-धीरे सही और गलत की पहचान करने की क्षमता को समाप्त कर देती है। धर्म की असली शिक्षा वो तो कतई नहीं होती जो मनुष्य को सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति को समाप्त कर दे, बल्कि धर्म की असली शिक्षा तो वो है जो आपको सवाल उठाने का सामर्थ्य दे ताकि आप गलत को गलत कह सके और अपना मार्ग खुद चुन सकें।वर्ष 2015 में 1200 बच्चों पर किये गए शोध के मुताबिक, 24 प्रतिशत ईसाई, 43 प्रतिशत मुस्लिम और 27 प्रतिशत धर्म को न मानने वाले बच्चे थे, इस शोध में पाया गया कि जिन बच्चों के परिवार वाले बहुत धार्मिक थे, वो बच्चे अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते थे। ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों का आंकलन उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर कर रहे थे। धार्मिक परिवारों से आने वाले बच्चे शरारत करने वाले दूसरे बच्चों को सख्त सज़ा देने के पक्ष में थे, जबकि जिन बच्चों के परिवार वाले किसी धर्म में नहीं मानते थे वो ज्यादा मिलनसार, अपनी चीज़ों को बांटने वाले और दूसरे छात्रों को सज़ा न देने के पक्ष में थे। यह सर्वे सिर्फ 1200 बच्चों पर किया गया था इसलिए कोई चाहे तो इसे आसानी से खारिज भी कर सकता है लेकिन इस समय दुनिया की आबादी करीब 750 करोड़ है और इनमें से 84 प्रतिशत यानी 630 करोड़ लोग खुद को धार्मिक कहते हैं फिर भी दुनिया में इस समय लगभग हर कोने में कोई न कोई हिंसा हो ही रही है, कोई न कोई युद्ध और कोई न कोई लड़ाई झगड़ा चल ही रहा है और ज्यादातर जगहों पर यह सब धर्म के नाम पर ही हो रहा है, इसलिए यकीनन यह फैसला अभिभावकों पर ही निर्भर करता है कि आपको अपने बच्चों को धार्मिक बनाने के नाम पर उन्हें कट्टर बनाना है या फिर उन्हें धर्म के असली मायने समझाते हुए एक बेहतर इंसान बनाना है। भारत में बच्चों को छोटी उम्र से ही धार्मिक रूप से कट्टर बनाए जाने की कहानी आज की नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी। 19वीं शताब्दी के अंत में भारत उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था, व अंग्रेज भारत आ चुके थे और वह भारत की पहचान के साथ साथ भारत की शिक्षा व्यवस्था को भी बदलने लगे थे।
तब भारत के मुसलमानों को लगा कि अंग्रेज उनकी भी धार्मिक पहचान को मिटा देंगे और इसी का मुकाबला करने के लिए भारत में मदरसों की स्थापना तेजी से होने लगी लेकिन धीरे धीरे मदरसे मुसलमानों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने का काम करने लगे। मस्जिदों से मदरसों की करीबी बढ़ने लगी और धीरे धीरे शिक्षा के नाम पर इस्लाम को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा और यह सिलसिला वर्ष 2001 तक चलता रहा, लेकिन जब 11 सितंबर 2001 में जब अमेरिका में बड़ा आतंकवादी हमला हुआ, तब पूरी दुनिया में मदरसों के प्रति सोच बदलने लगी। भारत में इसका असर पड़ा और मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा में केंद्र सरकार का दखल बढ़ गया, परन्तु इसे पूरी तरह से रोकने या इस व्यवस्था को समाप्त करने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। इस्लाम की दुनिया में मदरसे शिक्षा के केंद्र के रूप जरूर जाने जाते हैं लेकिन सदियों से इनका उपयोग राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करने के लिए किया जाता रहा है। जिस पर शायद ही किसी को एतराज होगा। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मदरसे पाकिस्तान में हैं। इनकी संख्या करीब 60 हजार है, इनमें से 20 हजार मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त है जबकि बाकी के मदरसे बिना इजाजत के ही चल रहे हैं। पाकिस्तान के इन मदरसों को पूरी दुनिया में आतंकवाद के लॉन्च पैड के तौर पर भी देखा जाता है। दुनिया में हुए कई बड़े आतंकवादी हमलों के तार इन मदरसों से ही जुड़ चुके हैं। पाकिस्तान के मदरसों को लेकर यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज द्वारा एक स्टडी की गई थी, जिसमें इन मदरसों में पढ़ने वाले 60 प्रतिशत बच्चों ने कहा था कि पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे पर भारत से युद्ध लड़ना चाहिए और कश्मीर को भारत से छीन लेना चाहिए, जबकि पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले 53 प्रतिशत बच्चे जेहाद के समर्थक हैं।
पाकिस्तान के मदरसों में बच्चों के मन यह जहर सिर्फ धार्मिक शिक्षा के आधार पर ही नहीं भरा जाता, बल्कि बच्चों से हिंसा भी की जाती है व उन्हें बुरी तरह से मारा पीटा भी जाता है। देश में जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा चेहरा मानते हैं वही अब मदरसों को बंद करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं। इनमें कई बड़े लोग शामिल हैं। गौरतलब है कि मदरसों पर पाबंदी से तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेंगी।
-निधि जैन