पारंपरिक दवाओं के शोध का वैश्विक केंद्र
प्रतिदिन चीन अपनी नामाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। वह कुछ ना कुछ ऐसा जरूर कर देता है कि फिर उसे भारत से मुंह की खानी ही पढ़ती हैं और अब हालही में भारत ने पारंपरिक दवाओं के शोध के वैश्विक केंद्र खोलने की विश्व स्वास्थ्य संगठन की घोषणा की है, जो कि चीन पर भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत के रूप में देखा जा सकता है।
पारंपरिक दवाओं के वैश्विक बाजार में भारत का निर्यात चीन के निर्यात का लगभग पांच फीसद है जो अवश्य ही जाहिर करता है कि वैश्विक शोध केंद्र खुलने के बाद आयुर्वेदिक दवाओं को आधुनिक चिकित्सा पद्धति रूप में न सिर्फ वैश्विक मान्यता मिलेगी, बल्कि दुनिया के वैश्विक बाजार में धाक भी जमेगी। जिससे चीन भयावह हो चुका हैं। पारंपरिक दवाओं के वैश्विक बाजार में चीन की पकड़ को देखते हुए डब्ल्यूएचओ का भारत में शोध केंद्र खोलने का ऐलान सामान्य घटना तो बिल्कुल भी नहीं है जिसकि दूरगामी असर होगा। पारंपरिक दवाओं के वैश्विक बाजार में चीन के दबदबे को इस बात से समझा जा सकता है, कि उसकी तुलना में भारतीय पारंपरिक दवाओं का निर्यात महज पांच फीसद के आसपास है।
ऐसे में स्वाभाविक रूप से वैश्विक शोध केंद्र के लिए चीन की दावेदारी को मजबूत माना जा रहा था लेकिन चीन के बजाय भारत को शोध का केंद्र बनाने का डब्ल्यूएचओ का फैसला वैश्विक कूटनीति में भारत के बढ़ते दबदबे को दिखाता है।चीन अपने कूटनीति ताकत का उपयोग कर बड़ी मात्रा में अपनी पारंपरिक दवाओं का निर्यात करने में सफल रहा। व इसके लिए चीन ने अफ्रीका और एशिया के कई देशों के विश्वविद्यालयों में चीनी पारंपरिक चिकित्सा की पढ़ाई के लिए कोर्स भी चला रहा है। वहीं वैज्ञानिक मानदंडों पर खरा उतरने के बावजूद आयुर्वेद, युनानी और सिद्ध को वह मान्यता नहीं मिल पाई जबकि कई बीमारियों के इलाज में आयुर्वेदिक दवाएं एलोपैथी दवाओं को कड़ी टक्कर दे रही हैं।
सीएसआइआर के तहत आने वाली लखनऊ की नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी एनबीआरआइ ने डायबटीज के लिए बीजीआर-34 नाम की दवा विकसित की है एंव कुछ सालों के भीतर यह दवा डायबटीज के इलाज में बीस बड़े ब्रांडों में शामिल भी हो जाएगी और इसी तरह सफेद दाग के इलाज के लिए रक्षा अनुसंधान से जुड़े डीआरडीओ ने ल्यूकोस्किन नाम की दवा विकसित की है, जो क्लीनिकल ट्रायल में पूरी तरह सफल रही है व पिछले दिनों ईरान की तेहरान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइसेंस ने अपने शोध पत्र में एंटी-आक्सीडेटिव हर्बल दवाओं को डायबटीज से पीडि़त और कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज में कारगर होने का दावा भी किया था।
बीजीआर-34 की खोज करने वाले एनबीआरआइ के पूर्व वैज्ञानिक डाक्टर एकेएस रावत के अनुसार यह दवा शरीर में शुगर की मात्रा को कम करने के साथ-साथ एंटी-आक्सीटेंड से भी भरपूर है और तेहरान यूनिवर्सिटी के शोध से भी स्पष्ट हुआ है कि बीजीआर-34 जैसी आयुर्वेदिक दवाएं कोरोना से ग्रसित डायबटीज के मरीजों के इलाज में मददगार साबित हो सकती हैं। बहरहाल आयुष मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी का भी कहना है कि डब्ल्यूएचओ के शोध केंद्र खुलने से आयुर्वेदिक दवाओं को वैज्ञानिक मापदंडों और क्लीनिकल ट्रायल पर खरा उतारने की कोशिशों को बल मिलेगा। जिसके साथ ही डब्ल्यूएचओ की मुहर लगने के बाद आयुर्वेदिक दवाओं को वैश्विक मान्यता के साथ-साथ बड़ा बाजार भी मिलेगा। वैसे फिलहाल पारंपरिक दवाओं का वैश्विक बाजार 31,500 करोड़ रुपये है, जिसके अगले पांच साल में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाने का अनुमान है।
गौरतलब है कि आने वाले समय में कौन सी दवा काम करेगी, कौन सा नुस्खा असरदार रहेगा किसी को नहीं पता लेकिन सभी को एहतियातन कदम की अनदेखी बिल्कुल भी नहीं करनी हैं।
-निधि जैन