1 महीने से सड़कों पर, किसान
किसान नेताओं की हर मांग पर सरकार विचार करने और बातचीत के माध्यम से बीच का रास्ता निकालने को तैयार है लेकिन किसान अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं और पांचवे दौर की वार्ता विफल होने के बाद अगले दौर की वार्ता के लिए तारीख नहीं दे रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कानून बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही लोकतांत्रिक है। पहले मसले पर कमेटियां बनाई जाती है। उनकी सिफारिश आती है। उन सिफारिशों के आधार पर सत्ता पक्ष का संबंधित मंत्रालय एक मसौदा तैयार करता है। जिस पर कैबिनेट चर्चा करती है और उस चर्चा में उभरे बिंदुओं को समाहित करते हुए एक बिल तैयार किया जाता है, जिस पर जनता और उससे जुड़े सभी लोगों की राय ली जाती है जिसके बाद लंबी चर्चा के साथ संसद के दोनों सदन इसे पारित करते हैं और अंत में राष्ट्रपति की मुहर से यह कानून बनता है। बहरहाल आज विपक्ष खासकर कांग्रेस पार्टी तीनों कानूनों के खिलाफ विरोध कर रहे हैं लेकिन अध्यादेश और उसे कानून में बदले जाने पर वह कहां थी? तब तो पार्टी ने अपने विरोध के सुर बुलंद नहीं किए थे।हालांकि कांग्रेस सरकार ने तो कई राज्य में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देकर कई बड़े कॉरपोरेट घरानों को अपने राज्य में आमंत्रित किया हैं तो जब अब मोदी सरकार भी एक पहल करना चाहती है तो विपक्षी दल क्यों उसमें रोड़ा बन रहे हैं? और अगर सच में कानून संगठनों के अनुसार यह कानून किसानों को पीछे धकेलेगें तो क्यों 2019 के अपने घोषणा पत्र में विपक्षी दल ने यही कानून लाने का फैसला किया था? मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि आंदोलनकारियों ने बातचीत के सभी दरवाजे बंद कर दिए हैं वहीं केंद्र सरकार के कृषि मंत्री कई प्रस्तावों के साथ सामने आए लेकिन इन प्रयासों को सफलता नहीं मिली। बातचीत की शुरुआत में अड़ियल रुख देखकर साफ हो गया था कि मुद्दा किसान नहीं है बल्कि बाजार के बड़े खिलाड़ियों के हित में है। कानून वापसी से उन करोड़ों किसानों का क्या जो कानून के साथ है। यह केवल लोकतंत्र में चुनी संवैधानिक सरकार को चुनौती देने की कवायद है।
आलम तो यह है कि किसानों के बीच गहराते संकट को देखते हुए सरकार बार-बार कृषकों को समझाने में लगी हैं। विश्वास और आंदोलन का समाधान करना सरकार का उत्तरदायित्व है लेकिन किसानों को भी समझना चाहिए कि आखिरकार कब तक वह आंदोलन करेंगे, कब तक वह ठंड में सड़कों पर बैठे रहेंगे? देखते ही देखते 30 से ज्यादा किसानों ने अपनी जान गवां दी है, किसान आत्महत्या करने की भी कोशिश कर रहे हैं परंतु अपनी मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं है।
किसान लगभग 1 महीने से सड़कों पर बैठे हैं जिससे आम जनता को यात्रा करने में काफी परेशानी हो रही है और बीते दिन तो किसानों ने यूपी गेट को पूरी तरह से बंद कर दिया था जिसके कारण लोगों को आवागमन में खासी परेशानी उठानी पड़ी, जो बिल्कुल भी सही नहीं है। किसानों को भी समझना चाहिए कि अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करना ठीक है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि उससे किसी को परेशानी तो नहीं हो रही।
-निधि जैन