वैक्सीन के बाद क्या मिलेगी राहत?

 -by Nidhi jain 

कहने को तो देश में अनगिनत बीमारियां हैं, जिन से रोजाना हजारों लोग प्रभावित होते हैं परंतु किसी का समाधान निकलता है तो किसी का नहीं, किसी बीमारी का प्रकोप पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लेता है तो वहीं कई बीमारियां ऐसी भी हैं जिनके बारे में कोई जानता ही नहीं है। बहरहाल दुनिया में इस समय 112 से ज्यादा ऐसी संक्रामक बीमारियां मौजूद हैं जो वायरस, बैक्टीरिया या पैरासाइट के कारण फैलती है जिनसे हर साल करीब 1 करोड़ 70 लाख लोगों की मौत होती है लेकिन पिछले 200 वर्षों में इनमें से सिर्फ एक ही बीमारी है जिसको जड़ से मिटाया जा सका है और वो है स्मॉल पॉक्स। यह सफलता वर्ष 1980 में मिली थी परन्तु इसके अलावा इंसानों को होने वाली ऐसी कोई संक्रामक बीमारी नहीं है जिसे जड़ से खत्म किया गया हो। हालांकि दुनिया भर के वैज्ञानिक तमाम कोशिशे कर रहे हैं कि कोरोना वायरस को भी जड़ से समाप्त कर दिया जाए लेकिन यह कैसे और कब होगा इस बारे में अब भी पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि, आम तौर पर एक वैक्सीन को तैयार करने में 5 से 10 वर्ष लग जाते हैं और अगर वैश्विक महामारी कोरोना की वैक्सीन बन जाती है तो वह पहली ऐसी वैक्सीन होगी, जो केवल 10 महीने में तैयार की जाएगी लेकिन क्या 10 महीने में तैयार की गई वैक्सीन जानलेवा कोरोना वायरस का खात्मा कर पाएगी? वैसे राहत की खबर यह है कि दुनियाभर में अब कई वैक्सीन तैयार हो चुकी हैं और जल्द ही दुनिया के 750 करोड़ लोगों को वैक्सीन दिए जाने का काम बड़े पैमाने पर आरम्भ हो सकता है लेकिन इन तमाम वैक्सीन की सफलता की दर को लेकर जो दावे किए गए हैं वह कई ना कई लोगों को शंका में ड़ाल रहा हैं। फाइजर का दावा है कि उसकी वैक्सीन 95 प्रतिशत तक प्रभावशाली है व रूस की स्पूतनिक 95 प्रतिशत, ऑक्सफोर्ड और Astra-zeneca की वैक्सीन 90 प्रतिशत एंव भारत में बन रही Covaxin के 60 प्रतिशत तक सफल होने की आशंका है लेकिन यह सारे नतीजे तीसरे चरण के ट्रायल से निकले हैं व यह एक नियंत्रित माहौल में हासिल किए गए नतीजे हैं और जब यह वैक्सीन आम लोगों को उपलब्ध होंगी तो इनकी सफलता दर गिरकर 50 प्रतिशत तक भी जा सकती है।
और ऐसा इसलिए होगा क्योंकि ट्रायल के दौरान लोगों को दो समूहों में बांटा जाता है, जिनमें से आधों को वैक्सीन दी जाती है और आधे लोगों को कोई वैक्सीन नहीं दी जाती। फाइजर के ट्रायल में 43 हज़ार लोग शामिल थे, जिनमें से 170 लोगों को कोराना का संक्रमण हुआ लेकिन इनमें से भी 162 लोगों को कोई वैक्सीन नहीं दी गई थी, जबकि 8 लोगों को वैक्सीन लगी थी तो इस आधार पर इस वैक्सीन के 95 प्रतिशत तक सफल होने की बात कही गई है लेकिन क्या ट्रायल में इस वैक्सीन ने जितना असर दिखाया उतना ही असर क्या यह हकीकत में लोगों पर हो पाएगा। आम तौर पर ट्रायल में जो लोग शामिल होते हैं वह स्वस्थ होते हैं यानी उन्हें पहले से कोई बीमारी नहीं होती लेकिन जब यह वैक्सीन दुनिया के करोड़ों लोगों को दी जाएगी, तो इसके असली असर के बारे में पता चलेगा। यह वैक्सीन अलग-अलग लोगों पर और अलग-अलग परिस्थितियों में कितने प्रतिशत कारगर होगी यह तो समय आने पर ही पता चलेगा। लेकिन सवाल तो यह उठता है कि वैक्सीन आने के बाद भी क्या हर कोई इस वैक्सीन को खरीद सकेगा, इसका खर्च उठा पाएगा? वैसे तो दुनियाभर के देशों ने इन अलग अलग वैक्सीन को खरीदने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। अमेरिका ने सबसे ज्यादा संख्या में वैक्सीन्स के लिए ऑर्डर दिए हैं, दूसरे नंबर पर यूरोप के देश हैं और तीसरे नंबर पर भारत है लेकिन फिर भी सभी देश अगले एक वर्ष में सिर्फ 20 से 25 प्रतिशत लोगों को ही वैक्सीन दे पाएंगे। जिसमें पहले चरण में यह स्वास्थ्य कर्मियों को मिलेगी, दूसरे चरण में सोशल वर्कर्स को, तीसरे चरण में 65 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों और चौथे चरण में आम जनता को यह वैक्सीन दी जाएगी। आम तौर पर वैक्सीन्स को 2 से 8 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर स्टोर रखने की जरूरत होती है, अमीर देशों के लिए तो यह काम मुश्किल नहीं है लेकिन जिन गरीब और विकासशील देशों में संसाधनों की कमी है और बिजली की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है वहां इन्हें स्टोर करके रखना मुश्किल काम हो सकता है। भारत पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन्स बनाता है इसलिए हो सकता है कि भारत के लोगों को यह वैक्सीन मिलने में इतनी समस्या न आए तथा भारत में हर साल करीब 300 करोड़ वैक्सीन बनाई जाती है। जिनमें से 100 करोड़ वैक्सीन्स का निर्यात किया जाता है यानी दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक वैक्सीन्स की सप्लाई कैसे की जाएगी? इसके लिए हवाई जहाज का सहारा लिया जाएगा व एक अनुमान के मुताबिक इस काम के लिए 8 हज़ार जम्बो जेट्स की जरूरत पड़ेगी। वैक्सीन लेकर यह हवाई जहाज़ अलग अलग देशों में उतरेंगे, फिर वहां से एक ​रेफ्रिजरेटेड वाहन से कोल्ड रूम तक लाया जाएगा और फिर इन्हें आइस बॉक्स में डालकर स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाया जाएगा। इन केंद्रों में वैक्सीन को 2 से 8 डिग्री सेल्सियस तापमान के बीच स्टोर किया जाएगा। फिर इन्हें छोटे आइस बॉक्सेज में रखकर वैक्सीनेशन कैम्पों तक लेकर जाया जाएगा एंव वैक्सीन सही समय पर सही जगह पहुंचे इसके लिए के बक्सों पर जीपीएस ट्रैकर्स भी लगाए जाएंगे। गौरतलब है कि किसी को वैक्सीन तब नहीं लगाई जाती जब उसे संक्रमण हो जाता है, वैक्सीन इसलिए लगाई जाती है, ताकि संक्रमण न हो और अब क्योंकि जब ज्यादातर वैक्सीन के निर्माण में या तो इसी बीमारी के कमज़ोर हो चुके वायरस का इस्तेमाल किया जाता है या फिर मरे हुए वायरस से वैक्सीन बनाई जाती है। इसलिए इन्हे लगाने के बाद लोगों में कोविड-19 जैसे लक्षण दिखाई दे सकते हैं। जैसे की तेज़ बुखार आना, मांसपेशियों में दर्द, ध्यान में कमी, और सिर दर्द की शिकायत हो सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इस वायरस को पहचानकर उससे लड़ने लगती है और यहीं से वायरस के खिलाफ इम्युनिटी तैयार होती है। डिसके बाद वैक्सीन्स की दूसरी डोज लोगों को दी जाएगी लेकिन इसके दुष्प्रभाव पहले से कम होंगे परन्तु क्या वैक्सीन आने के बाद कोविड-19 का प्रकोप कम हो जाएगा?

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